Lekhika Ranchi

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आचार्य चतुसेन शास्त्री--वैशाली की नगरबधू-


102. वैशाली की उत्सुकता : वैशाली की नगरवधू

जैसे देवी अम्बपाली के सिंह द्वारा आक्रान्त होकर निधन का समाचार आग की भांति वैशाली के जनपद में फैल गया था , वैसे ही देवी के अकस्मात् लौट आने से नगर में हलचल मच गई। सप्तभूमि प्रासाद के चमकते स्वर्ण - कलशों के बीच विविध मीन -ध्वज वायु में लहराने लगे। प्रासाद के सिंहपौर पर महादुन्दुभि अनवरत बजने लगी । उसका गम्भीर घोष सुनकर वैशाली के नागरिक निद्रा से जागकर आंखें मलते हए सप्तभूमि - प्रासाद की ओर दौड़ चले । देवी की आज्ञा से सम्पूर्ण प्रासाद फूलों , पताकाओं, तोरणों और रत्नजटित बन्दनवारों से सजाया गया । भृत्य और बन्दी चांदी के तूणीरों द्वारा बारम्बार गगनभेदी नाद करने लगे।

नागरिकों का ठठू प्रासाद के बाहरी प्रांगण और सिंहपौर पर एकत्रित हो गया था । सभी देवी के इस प्रकार अकस्मात् लोप हो जाने और फिर अकस्मात् ही अपने आवास में लौट आने की रहस्यपूर्ण अद्भुत कहानी विविध भांति कह रहे थे । सर्वत्र यह बात प्रसिद्ध हो गई कि देवी अम्बपाली को गहन वन में क्रीड़ारत गन्धर्वराज चित्ररथ गन्धर्वलोक में ले गए थे, वहां गन्धर्वराज ने मंजुघोषा वीणा स्वयं बजाई थी और समस्त दिव्यदेहधारी गन्धों के सम्मुख देवी अम्बपाली ने अपार्थिव नृत्य किया था । उसकी प्रतिच्छवि गन्धर्वराज ने स्वयं निर्मित की है तथा दिव्य मंजुघोषा वीणा भी देवी को गन्धर्वराज ने दी है ।

दिन - भर अम्बपाली अपने शयन - कक्ष में ही चुपचाप पड़ी रहीं । उन्होंने सन्ध्या से प्रथम किसी को भी अपने सम्मुख आने का निषेध कर दिया था । इससे बहुत से सेट्ठिपुत्र , राजवर्गी और सामन्तकुमार आ - आकर लौट गए थे। कुछ वहीं प्रांगण और अलिन्द में टहलने लगे थे। तब विनयावनत मदलेखा ने उन सबको स्फटिक कक्ष से मृदु- मन्द मुस्कान के साथ सन्ध्या के बाद आने को कहा । अभी देवी श्रान्त - क्लान्त हैं यह जानकर किसी ने हठ नहीं किया। किन्तु आज के सन्ध्या उत्सव की तैयारियां बड़े ठाठ से होने लगीं ।

स्फटिक के दीप - स्तम्भों पर सुगन्धि तेल से भरे स्नेह -पात्र रख दिए गए । तोरण और वन्दनवारों एवं रंग -बिरंगी पताकाओं से स्वागत - गृह सजाया जाने लगा। कोमल उपधान युक्ति से रख दिए गए। शिवि , कोजव , क्षौम बिछाए गए । आसन्दी सजाई गई । रत्नजटित मद्य- पात्रों में सुवासित मद्य भरा गया । स्थान - स्थान पर चौसर बिछाई गईं । सुन्दर दासियां चुपचाप फुर्ती से सब काम करतीं दौड़ - धूप कर रही थीं ।

सन्ध्या की लाल प्रभा अस्तंगत सूर्य के चारों ओर फैल गई और वह धीरे -धीरे अन्धकार में व्याप्त हो गई। सप्तभूमि प्रासाद सहस्र दीप - रश्मियों से आलोकित हो उठा । उसका प्रकाश रंगीन गवाक्षों से छन - छनकर नीलपद्म सरोवर पर प्रतिबिम्बित होने लगा । धीरे - धीरे नागरिक अपने - अपने वाहनों पर चढ़ - चढ़कर प्रासाद के मुख- द्वार पर आने लगे । दण्डधर और दौवारिक विविध व्यवस्था करने लगे । युवक नागरिक कौतूहल और उत्साह से भरे अम्बपाली को एक बार देख भर लेने को व्याकुल हो उठे । परन्तु प्रहर रात गए तक भी देवी अपने एकान्त कक्ष से बाहर नहीं निकलीं। इस समय वैशाली के श्रीमन्त तरुणों से अतिथि - गृह भर गया था । डेढ़ दण्ड रात बीतने पर अम्बपाली ने प्रमोद - गृह में प्रवेश किया । इस समय उनका परिधान बहुत सादा था । उनका मुख अभी भी सफेद हो रहा था । नेत्रों में विषाद और वेदना ने एक अप्रतिम सौन्दर्य ला दिया था । सेट्ठिपुत्र और सामन्त युवक देवी का स्वागत करने को आगे बढ़े। देवी अम्बपाली ने आगे बढ़कर मृदु- मन्द स्वर में कहा

“ मित्रो, आपका स्वागत है , आप सब चिरंजीव रहें ! ”

“ देवी चिरंजीवी हों - ” अनेक कण्ठों से यही स्वर निकला । देवी मुस्कराईं और आगे बढ़कर स्फटिक की एक आधारवाली पीठ पर बैठ गईं । उन्होंने स्वर्णसेन को देखकर आगे हाथ बढ़ाकर कहा

“ युवराज, आगे आओ; देखो, किस भांति हम पृथक् हुए और किस भांति अब फिर मिले, इसको जीवन का रहस्य कहा जा सकता है। ”

स्वर्णसेन ने द्रवित होकर कहा - “ किन्तु देवी , मैं साहस नहीं कर सकता । देवी की आपदा का दायित्व तो मुझी पर है। ”

“ आपदा कैसी मित्र ? ”

“ आह, उसे स्मरण करने से अब भी हृदय कांप उठता है! कैसा भयानक हिंस्र जन्तु था वह सिंह। ”

“ किन्तु वह तो एक दैवी प्रतारणा थी , मित्र , उसके बाद तो जो कुछ हुआ वह अलौकिक ही था ? ”

“ तब क्या यह सत्य है देवी , कि आपका वन में गन्धर्वराज से साक्षात् हुआ था ? ” एक अपरिचित युवक ने तनिक आगे बढ़कर कहा । युवक अत्यन्त सुन्दर, बलिष्ठ और गौरांग था , उसके नेत्र नीले और केश पिंगल थे, उठान और खड़े होने की छवि निराली थी , उसका वक्ष विशाल और जंघाएं पुष्ट थीं ।

देवी ने उसकी ओर देखकर कहा - “ परन्तु भद्र, तुम कौन हो ? मैं पहली ही बार तुम्हें देख रही हूं। ”

स्वर्णसेन ने कहा -

“ यह मेरा मित्र मणिभद्र गान्धार है, ज्ञातिपुत्र सिंह के साथ तक्षशिला से आया है । वहां इसने आचार्य अग्निदेव से अष्टांग आयुर्वेद का अध्ययन किया है और अब यह कुछ विशेष रासायनिक प्रयोगों का क्रियात्मक अध्ययन करने आचार्य गौड़पाद की सेवा में वैशाली आया है। ”

“ स्वागत भद्र! ”अम्बपाली ने उत्सुक नेत्रों से युवक को देखकर मुस्कराते हुए कहा -“ प्रियदर्शी सिंह तो मेरे आवास के विरोधी हैं । उन्होंने तुम्हें कैसे आने दिया प्रिय और आचार्य से कैसे प्रयोग सीखोगे ? ”

“ लौहवेध और शरीरवेध- सम्बन्धी। ”

“ क्या वे सब सत्य हैं , प्रिय भद्र ? आचार्य गौड़पाद से तो मैं बहुत भय खाती हूं। ”

“ भय कैसा देवी ? ”

“ आचार्य की भावभंगी ही कुछ ऐसी है। ”वह हंस पड़ी। युवक भी हंस पड़ा ।

अम्बपाली ने अपना हाथ फैला दिया । युवक ने देवी के हाथ को आदर से थाम कर कहा -

“ तो देवी , क्या यह सत्य है कि ..... ”

“ हां सत्य ही है प्रिय , उसी भांति जिस भांति तुम्हारे लौह वेध और शरीरवेध के वे विशिष्ट प्रयोग । ”

स्वर्णसेन ने शंकित - सा होकर कहा -

“ तो सिंह का आक्रमण क्या प्रतारणा थी ? ”

“ निस्सन्देह युवराज, क्या तुमने वह दिव्य वीणा और चित्र देखा नहीं ? ”

“ देख रहा हूं, देवी ! तो इस सौभाग्य पर मैं आपको बधाई देता हूं। ”

मणिभद्र ने कहा - “ मैं भी आर्ये! ”

“ धन्यवाद मित्रो, आज अच्छी तरह पान करो । आज मैं सम्पूर्ण हूं, कृतकृत्य हूं, मैं धन्य हूं। मित्रो, मैं देवजुष्टा हूं। ”

चारों ओर देवी अम्बपाली की जय - जयकार होने लगी और तरुण बारम्बार मद्य पीने और ‘ देवी अम्बपाली की जय चिल्लाने लगे ।

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